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शुक्रवार, 26 जून 2009
स्ंातोश (लघु कथा)
स्ूारज अपने ताप के मद में चूर अग्नि बरसा रहा था। चांद ने दुखी होकर कहा
‘‘देखो! धरती पर प्राणी प्यासे मर रहे हैं। पेड, पेड़ न रह कर ठूंठ रह गये हैं। इन्हें इस तरह न तरसाओ। तुम्हारा ह्यदय द्रवित नहीं होता। कैसे सब प्राणी दीन-हीन से आकाष की ओर देख रहे हैं।’’
स्ूारज दंभ से हंसते हुये तत्क्षण बोला
‘‘षक्तिमान बनने में ही गौरव है। जब मैं जोष में होता हूं तो मनुश्य को निचोड़ सकता हूं । कोई मेरी ओर देखने से भी कतराता है। जीवन ऐसा होना चाहिये जिसमें लोग भयभीत रहे और लोहा माने। तुम्हारा क्या जीवन है? तुम तो मेरे बूते पर ही तो चमकते हो।’’
चांद ने कहा ‘‘जो व्यक्ति हमें सम्मान देता है हमें भी उसका आदर करना चाहिये। घमंड व्यक्ति को नश्ट कर देता है। मनुश्य ने तुम्हें देवता माना, तुम्हें अपने ग्रह- मंडल मे जगह दी। और तुम ही उसके प्राणों पर यमदूत की तरह मंडरा रहे हो। मेरा प्रकाष भले ही तुम्हारा हो पर मैं ही तुम्हारी षक्तियों को प्रषंसनीय बनाता हूं। मेरी चांदनी की षीतलता रात्रि को और भी सुखद बना देती है। ऐसे में मनुश्यों के चेहरे पर भरपूर सुख देते हुये जो संतुश्टि प्राप्त होती है मेरे लिये वही अपार संतोशप्रद है। तुम्हें षक्तिषाली होने का अभिमान है। परंतु मैं तो इस षांतिदायी जीवन में ही अधिक प्रसन्न हूं। मैं कुछ दिन लोप रहता हूं तो सभी मेरी प्रतीक्षा करते हैं। लेकिन तुम्हारी तीव्रता से त्रस्त होकर छाया में दुबक रहे हैं।’’
चांद की बात सुनकर सूरज ने सिर झुका दिया। और वसुधा को षीतल करने के लिये वारिद बंधुओं से आग्रह करने चल पड़ा।
ओमीना राजपुरोहित सुशमा
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